'चरर मरर खुल गए रवस्फुतो से' , इस पंक्ति में कौन सा अलंकार है (charar marar khul gae ravasphuto se , is pankti mein kaun sa alankaar hai yee) 一 - www.studyandupdates.com

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'चरर मरर खुल गए रवस्फुतो से' , इस पंक्ति में कौन सा अलंकार है (charar marar khul gae ravasphuto se , is pankti mein kaun sa alankaar hai yee) 一

'चरर मरर खुल गए रवस्फुतो से' , इस पंक्ति में कौन सा अलंकार है一

  1. अनुप्रास अलंकार
  2. श्लेष अलंकार
  3. रूपक अलंकार
  4. उत्प्रेक्षा अलंकार

उत्तर- अनुप्रास अलंकार


अनुप्रास अलंकार - अनुप्रास शब्द ‘अनु+प्रास’ इन 2 शब्दों से मिलकर बनता है। यहाँ पर ‘अनु’ शब्द का अर्थ ‘बार-बार‘ तथा ‘प्रास’ शब्द का अर्थ ‘वर्ण‘ होता है। जब किसी वर्ण की बार-बार आवृत्ति होने पर जो चमत्कार होता है, उसे ‘अनुप्रास अलंकार’ कहते है।


'चरर मरर खुल गए अरर रवस्फुटो से' में अनुप्रास अलंकार है।

अलंकरोति इति अलंकार-जो अलंकृत करता है, वही अलंकार है। जहाँ एक शब्द या वर्ण बार-बार आता है वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। अनुप्रास का अर्थ है दोहराना। जहाँ कारण उत्पन्न होता है अर्थात काव्य में जहाँ एक ही अक्षर की आवृत्ति बार-बार होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। 


जैसे- रघुपति राघव राजा राम। (र अक्षर की आवृत्ति)।




साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वादश सर्ग / पृष्ठ ३


कविता


देखा चारों ओर वीर ने दृष्टि डाल कर,
और चला तत्काल आपको वह सँभाल कर।

मूर्च्छित होकर गिरी इधर कोसल्या रानी,
उधर अट्ट पर दीख पड़ा गृह-दीपक मानी।
चढ़ दो दो सोपान राज-तोरण पर आया,
ऋषभ लाँघ कर माल्यकोश ज्यों स्वर पर छाया!

नगरी थी निस्तब्ध पड़ी क्षणदा-छाया में,
भुला रहे थे स्वप्न हमें अपनी माया में।
जीवन-मरण, समान भाव से जूझ जूझ कर,
ठहरे पिछले पहर स्वयं थे समझ बूझ कर।
पुरी-पार्श्व में पड़ी हुई थी सरयू ऐसी,
स्वयं उसी के तीर हंस-माला थी जैसी।
बहता जाता नीर और बहता आता था,
गोद भरी की भरी तीर अपनी पाता था।
भूतल पर थी एक स्वच्छ चादर-सी फैली,
हुई तरंगित तदपि कहीं से हुई न मैली।
ताराहारा चारु-चपल चाँदी की धारा,
लेकर एक उसाँस वीर ने उसे निहारा।
सफल सौध-भू-पटल व्योम के अटल मुकुर थे,
उडुगण अपना रूप देखते टुकुर टुकुर थे।
फहर रहे थे केतु उच्च अट्टों पर फर फर,
ढाल रही थी गन्ध मृदुल मारुत-गति भर भर।
स्वयमपि संशयशील गगन घन-नील गहन था,
मीन-मकर, वृष-सिंह-पूर्ण सागर या वन था!
झोंके झिलमिल झेल रहे थे दीप गगन के,
खिल खिल, हिलमिल खेल रहे थे दीप गगन के।
तिमिर-अंक में जब अशंक तारे पलते थे,
स्नेह-पूर्ण पुर-दीप दीप्ति देकर जलते थे।
धूम-धूप लो, अहो उच्च ताराओ, चमको,
लिपि-मुद्राओ,-भूमि-भाग्य की, दमको दमको।

करके ध्वनि-संकेत शूर ने शंख बजाया,
अन्तर का आह्वान वेग से बाहर आया।
निकल उठा उच्छ्वास वक्ष से उभर उभर के,
हुआ कम्बु कृत्कृत्य कण्ठ की अनुकृति करके।
उधर भरत ने दिया साथ ही उत्तर मानों,
एक-एक दो हुए, जिन्हें एकादश जानों!
यों ही शंख असंख्य हो गये, लगी न देरी,
घनन घनन बज उठी गरज तत्क्षण रण-भेरी।
काँप उठा आकाश, चौंक कर जगती जागी,
छिपी क्षितिज में कहीं, सभय निद्रा उठ भागी।
बोले वन में मोर, नगर में डोले नागर,
करने लगे तरंग भंग सौ-सौ स्वर-सागर।
उठी क्षुब्ध-सी अहा! अयोध्या की नर-सत्ता,
सजग हुआ साकेत पुरी का पत्ता पत्ता।
भय-विस्मय को शूर-दर्प ने दूर भगाया,
किसने सोता हुआ यहाँ का सर्प जगाया!
प्रिया-कण्ठ से छूट सुभट-कर शस्त्रों पर थे,
त्रस्त-बधू-जन-हस्त स्रस्त-से वस्त्रों पर थे।
प्रिय को निकट निहार उन्होंने साहस पाया,
बाहु बढ़ा, पद रोप, शीघ्र दीपक उकसाया!
अपनी चिन्ता भूल, उठी माता झट लपकी,
देने लगी सँभाल बाल-बच्चों को थपकी--
"भय क्या, भय क्या हमें राम राजा हैं अपने,
दिया भरत-सा सुफल प्रथम ही जिनके तप ने!"
चरर-मरर खुल गये अरर बहु रवस्फुटों से,
क्षणिक रुद्ध थे तदपि विकट भट उरःपुटों से।
बाँधे थे जन पाँच पाँच आयुध मन भाये;
पंचानन गिरि-गुहा छोड़ ज्यों बाहर आये।
"धरने आया कौन आग, मणियों के धोखे?"
स्त्रियाँ देखने लगीं दीप धर, खोल झरोखे।
"ऐसा जड़ है कौन, यहाँ भी जो चढ़ आवे?
वह थल भी है कहाँ, जहाँ निज दल बढ़ जावे?
राम नहीं घर, यही सोच कर लोभी-मोही,
क्या कोई माण्डलिक हुआ सहसा विद्रोही?
मरा अभागा, उन्हें जानता है जो वन में,
रमे हुए हैं यहाँ राम-राघव जन जन में।"
"पुरुष-वेश में साथ चलूँगी मैं भी प्यारे,
राम-जानकी संग गये, हम क्यों हों न्यारे?"
"प्यारी, घर ही रहो उर्मिला रानी-सी तुम,
क्रान्ति-अनन्तर मिलो शान्ति मनमानी-सी तुम!"
पुत्रों को नत देख धात्रियाँ बोलीं धीरा--
"जाओ बेटा,--'राम काज, क्षण भंग शरीरा’।"
पति से कहने लगीं पत्नियाँ--"जाओ स्वामी,
बने तुम्हारा वत्स तुम्हारा ही अनुगामी!
जाओ, अपने राम-राज्य की आन बढ़ाओ,
वीर-वंश की बान, देश का मान बढ़ाओ।"
"अम्ब, तुम्हारा पुत्र पैर पीछे न धरेगा,
प्रिये, तुम्हारा पति न मृत्यु से कहीं डरेगा।
फिर भी फिर भी अहो! विकल-सी तुम हो रोती?"
"हम यह रोती नहीं, वारतीं मानस-मोती!"
यों ही अगणित भाव उठे रघु-सगर-नगर में,
बगर उठे बढ़ अगर-तगर-से डगर डगर में।
चिन्तित-से काषाय-वसनधारी सब मन्त्री,
आ पहुँचे तत्काल, और बहु यन्त्री-तन्त्री।
चंचल जल-थल-बलाध्यक्ष निज दल सजते थे,
झन झन घन घन समर-वाद्य बहु विध बजते थे।
पाल उड़ाती हुईं, पंख फैलाकर नावें--
प्रस्तुत थीं, कब किधर हंसनी-सी उड़ जावें।
हिलने डुलने लगे पंक्तियों में बँट बेड़े,
थपकी देने लगीं तरंगें मार थपेड़े।
उल्काएँ सब ओर प्रभा-सी पाट रही थीं,
पी पी कर पुर-तिमिर जीभ-सी चाट रही थीं!
हुई हतप्रभ नभोजड़ित हीरों की कनियाँ,
मुक्ताओं-सी बेध न लें भालों की अनियाँ!
तप्त सादियों के तुरंग तमतमा रहे थे।
तुले धुले-से खुले खड्ग चमचमा रहे थे।
हींस, लगामें चाब, धरातल खूँद रहे थे;
उड़ने को उत्कर्ण कभी वे कूँद रहे थे!
करके घंटा-नाद, शस्त्र लेकर शुण्डों में,
दो दो दृढ़ रद-दण्ड दबा कर निज तुण्डों में,









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